मनुष्य जीव उत्पन्न होते ही सबसे पहले शब्द सुनता है. शब्दों की शक्ति उनके ध्वनित भावों में छिपी होती है. एक दिव्य मन्त्र ध्वनि शक्ति जो आकाश तत्व से निकलती है उच्चारण करने या सुनने वाले को एक सांकेतिक सन्देश देता है जिससे उसके एक या अधिक शक्ति केंद्र ग्रहण करतें हैं.
मंत्र का रहस्य उसकी ध्वनि और उच्चारण में छिपा होता है। हर शब्द या मंत्र दिव्य नहीं है। मंत्र शक्ति दुरूपयोग करने का परिणाम भयानक होता है। mantra sadhna केवल सात्विक शक्ति उपार्जन के लिए होनी चाहिए उसका राजसिक तामसिक प्रयोग अति विनाशकारी होता है।
सामान्य ज्ञान की बात है कोई भी शब्द, तरंग भाव जिससे किसी को हानि हो वह तामसिक है. यूँ तो हमारा प्रत्येक शब्द मन्त्र है इसीलिए बोलने से पहले विचारवान मन से बोलना ही उपयुक्त है.
तामसिक बोल, बोलने वाले को ही हानि पहुंचाते हैं, इसी प्रकार मन्त्रों या शब्दों को तामसिक भावों से जो लोग बोलते हैं वह सूक्ष्म स्तर पर अपने शरीर को रुग्ण और मन को विकार युक्त बनाते हैं.
उसी प्रकार दैविक सात्विक भावों से बोले गए शब्द आकाश तत्व द्वारा हमारा सन्देश अपनी प्रतिध्वनि से बहुत दूर तक प्रभावकारी बनाते है।
प्रेम पूर्वक सुन्दर साफ़ मन से सत्य वचन बोलकर आप किसी भी मनुष्य, देव या ईश्वरीय शक्ति तक पहुँच सकते हैं, ईर्ष्या, द्वेष,घृणा व् विषाद मन से बोले गए वचन, शब्द सुनने वाले से अधिक बोलने वाले को न केवल बीमार बनाते हैं उनका शरीर विकारों से भरकर मन कूड़े के ढेर जैसा तुच्छ और विकारी बनता हैं. इसीलिए अज्ञानतापूर्वक कहे,
मंत्र का रहस्य समझने के लिए हमें उसके उच्चारण और प्रकार पर ध्यान देना चाहिए।
मंत्र का रहस्य उसकी ध्वनि और उच्चारण
मंत्र वह ध्वनि है जो अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनती है. यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक तरंगात्मक ऊर्जा से व्याप्त है जिसके दो प्रकार हैं – नाद (शब्द) एवं प्रकाश। आध्यात्मिक धरातल पर इनमें से कोई एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे के बिना सक्रिय नहीं होती। मंत्र मात्र वह ध्वनियाँ नहीं हैं जिन्हें हम कानों से सुनते हैं, यह ध्वनियाँ तो मंत्रों का लौकिक स्वरुप भर हैं।
ध्यान की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पूरी तरह से प्रभु के साथ एकाकार हो जाता है जो अन्तर्यामी है। वही सारे ज्ञान एवं ‘शब्द’ (ॐ) का स्रोत है। प्राचीन ऋषियों ने इसे शब्द-ब्रह्म की संज्ञा दी – वह शब्द जो साक्षात् ईश्वर है! उसी सर्वज्ञानी शब्द-ब्रह्म से एकाकार होकर साधक मनचाहा ज्ञान प्राप्त कर सकता है।मंत्र का रहस्य समझने के लिए सही उच्चारण और ध्वनि पर एकाग्र होना जरुरी है।
महामंत्र
एक अति सघन बीज मंत्र है जो वास्तव में एक प्रार्थना है जिसके अंतर्मन से सुनने या उच्चारण से शरीर के उच्च ऊर्जा केंद्र जाग्रत हो सकते है।
मंत्र का रहस्य और सही उच्चारण
मंत्र, उनके उच्चारण की विधि, विविधि चेष्टाएँ, नाना प्रकार के पदार्थो का प्रयोग भूत-प्रेत और डाकिनी शाकिनी आदि, ओझा, मंत्र, वैद्य, मंत्रौषध आदि सब मिलकर एक प्रकार का मंत्रशास्त्र बन गया और इस पर अनेक ग्रंथों की रचना हुई।मंत्रग्रंथों में मंत्र के अनेक भेद माने गए।
कुछ मंत्रों का प्रयोग किसी देव या देवी का आश्रय लेकर किया जाता है और कुछ का प्रयोग भूत प्रेत आदि का आश्रय लेकर। कुछ मंत्र भूत या पिशाच के विरूद्ध प्रयुक्त होते हैं और कुछ उनकी सहायता प्राप्त करने के हेतु। स्त्री और पुरुष तथा शत्रु को वश में करने के लिये प्रयोग वे वशीकरण मंत्र कहलाते हैं।
शत्रु का दमन करने के लिये मंत्रविधि वह मारण कहलाती है। भूत को उनको उच्चाटन या शमन मंत्र कहा जाता है। लोगों का “विश्वास” है कि ऐसी कोई कठिनाई, विपत्ति पीड़ा नहीं है जिसका निवारण मंत्र के द्वारा नहीं हो सकता.कोई ऐसा लाभ नहीं है जिसकी प्राप्ति मंत्र के द्वारा नहीं हो सकती।
वास्तव में यह सब शक्ति का दुरूपयोग है और इसके करने वाले अधोगति और पाप के भागी बनतेहै। महामंत्र : मंत्रों में कुछ महामंत्र हैं जिनमे विशिष्ट ऊर्जा निहित है।
1. ) ।।। ॐ ।।।
“ॐ” ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर का प्रतीक। ओउ्म तीन शब्द ‘अ’ ‘उ’ ‘म’ से मिलकर बना है जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा त्रिलोक भूर्भुव: स्व: भूलोक भुव: लोक तथा स्वर्ग लोक का प्रतीक है।
अ उ म्। “अ” का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, “उ” का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, “म” का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् “ब्रह्मलीन” हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त “अ” तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं “उ” उड़ने का अर्थ देता है।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में है ॐ व्याप्त
सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है। हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे श्वास की गति को नियंत्रित करता है। किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र — ॐ रामाय नमः, विष्णु का मंत्र — ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र — ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं।
कहा जाता है कि ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है। ॐ का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। “तस्य वाचकः प्रणवः” अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।
ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।
गुरु नानक का शब्द एक ओंकार सतनाम प्रचलित शत्प्रतिशत सत्य है। एक ओंकार ही सत्य नाम है। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है।
ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौं निर्वेर अकालमूर्त
ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं अकाल-पुरुष के सदृश हो जाता है।
कबीर र्निगुण सन्त कवि ने भी ॐ के महत्व को स्वीकारा
ओ ओंकार आदि मैं जाना। लिखि औ मेटें ताहि ना माना।।
ओ ओंकार लिखे जो कोई। सोई लिखि मेटणा न होई।।
ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म
कठोपनिषद कहता है आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।
मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है।
2 . ) गायत्री महामंत्र
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि गायत्री मंत्र का रहस्य, उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है।
ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी इस विशेष मंत्र की रचना हुई
ॐ भूर्भुव स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
गायत्री मंत्र का रहस्य और हिंदी अनुवाद
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
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गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है। वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों तक समस्त दिव्य ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है। माँ गायत्री का आँचल पकड़ने वाला साधक कभी निराश नहीं हुआ। गायत्री मंत्र का रहस्य चौबीस अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं। गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, ऐसा ऋषिगणों का अभिमत है।
गायत्री वेदमाता हैं एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है। इससे अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। भौतिक लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिए भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु के लिए भी एकमात्र आश्रय गायत्री ही है।
गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं।